मानवता की बेड़ियों में जकड़ा सिसकता एलोपेथिक डॉक्टर समाज
-by Dr. Mrityunjay sarawagi. M.S. dept of surgery
published in SPRIHA 1999 issue.
सफ़ेद कोट , गले में आला, इलाज़ की चुनौतियों एवं शल्य क्रिया के रोमांच से अभिभूत प्रत्येक विद्यार्थी अपने अथक परिश्रम से मेडिकल कोल्लेज में दाखिला लेता है. ५-८ वर्षों के तपस्या के बाद वह स्वतंत्र रूप से व्यवसाय से जुटता है.इस व्यवसाय के जोखिमो से और रोज़ की उतरदायित्व से उसे पता चलता है की हर वह चीज़ जो चमकती है सोना नहीं होती.
आज व्यवहार में आने वाली सभी चिकत्सा पद्धतियों में एलोपेथिक सबसे प्रमाणिक चिकत्सा प्रणाली है.सच ये भी है की इस चिकित्सा पद्धति की अपनी परिधि , लक्ष्मण रेखाएं, एवं जटिलताएं हैं. पाश्चात्य विज्ञान पर आधारित इस चिकित्सा का प्रचलन भारतीय सामाजिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में चिकित्सक के समक्ष कई बार किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति उत्पन्न कर देता है.
निकट के समय में चिकित्सक ये अनुभव करने लगे हैं की मरीज़ के अभिभावकों की अपेक्षाएं , आक्रोश,अविश्वास एवं असंतोष की भावना बढ़ने लगी है.तो क्या चिकत्सकों के मूल्यों का ह्रास हुआ है? क्या इस स्थिति में केवल चिकित्सक उत्तरदायी हैं?यह सच है कि सामाजिक मूल्यों में कमी का असर इस व्यवसाय पर भी पडा है. कुछ चिलित्सक अपने क्रियाकलापों से इसे कलंकित कर रहे हैं. लेकिन इनकी संख्या कम है. इस संख्या मे वृद्धि MBBS degree धारकों से नहीं है, बल्कि अल्पकालिक एवं अपर्याप्त योग्यता वाले वैसे चिकित्सकों से है जिन्हें एलोपेथिक शिक्षा का विधिवत ज्ञान नहीं है. और जो अपने मरीज़ के इलाज़ में गलत तरीको का प्रयोग करते हैं.
आज एक तरफ तो मानवता का ढोल चिकित्सक के गले से बंधकर लोग उन्हें अपमानित एवं प्रताड़ित करने से भी नहीं चुकते. वहीँ साथ साथ COPRA-consumer protection act की जंजीरों में हमें जकड दिया जाता है. इस स्थिति में हम सिसक तो सकते हैं, प्रतिवाद नहीं कर सकते हैं. यदि इस चिकत्सा विधि में विस्वास रखने एवं लाभान्वित होने का अधिकार तो मरीज़ को है तो इसके दोषों एवं इसकी सीमा रेखाओं को भी उन्हें ही समझना एवं स्वीकार करना होगा. चमत्कार अलाद्दीन का चिराग या संजीवनी बूटी जैसा इलाज़ इस पद्धति की चिकित्सा विधि में नहीं है. हम संवेदनहीन नहीं हैं,लेकिन अप्रत्याशित परिणाम, अभिभावकों की असामयिक, अनुचित एवं अपनी सुविधानुसार मांगों की पूर्ति नहीं होने पर मानवता के कटघरों में खड़ाकर जिस प्रकार हम अपमानित और पप्रताड़ित हो रहे हैं उस मानसिक वेदना एवं क्षोभ का आभास कर पाना शायद दूसरों के लिए संभव नहीं है.
चिकत्सा ऑफिस में पड़ी कोई फाइल नहीं है जिसपर दबाव डालकर कोई मनोकुल आदेश पारित कराया जा सके, यह परस्पर विश्वास एवं सहयोग से ही संभव है. आनेवाला समय एलोपेथिक चिकित्सक के लिए और जटिल हो सकता है, साथ ही मरीज़ विशेष कर गंभीर रूप से बीमार मरीजों के इलाज़ में परेशानियां आ सकती है. अगर हम आज जागरूक होकर इस व्यवसाय को बनाम करने वालों का बहिष्कार शुरू न करें एवं लोगों को इस चिकत्सा विधि की वस्तुस्थिति से अवगत न करायें.
-by Dr. Mrityunjay sarawagi. M.S. dept of surgery
published in SPRIHA 1999 issue.
सफ़ेद कोट , गले में आला, इलाज़ की चुनौतियों एवं शल्य क्रिया के रोमांच से अभिभूत प्रत्येक विद्यार्थी अपने अथक परिश्रम से मेडिकल कोल्लेज में दाखिला लेता है. ५-८ वर्षों के तपस्या के बाद वह स्वतंत्र रूप से व्यवसाय से जुटता है.इस व्यवसाय के जोखिमो से और रोज़ की उतरदायित्व से उसे पता चलता है की हर वह चीज़ जो चमकती है सोना नहीं होती.
आज व्यवहार में आने वाली सभी चिकत्सा पद्धतियों में एलोपेथिक सबसे प्रमाणिक चिकत्सा प्रणाली है.सच ये भी है की इस चिकित्सा पद्धति की अपनी परिधि , लक्ष्मण रेखाएं, एवं जटिलताएं हैं. पाश्चात्य विज्ञान पर आधारित इस चिकित्सा का प्रचलन भारतीय सामाजिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में चिकित्सक के समक्ष कई बार किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति उत्पन्न कर देता है.
निकट के समय में चिकित्सक ये अनुभव करने लगे हैं की मरीज़ के अभिभावकों की अपेक्षाएं , आक्रोश,अविश्वास एवं असंतोष की भावना बढ़ने लगी है.तो क्या चिकत्सकों के मूल्यों का ह्रास हुआ है? क्या इस स्थिति में केवल चिकित्सक उत्तरदायी हैं?यह सच है कि सामाजिक मूल्यों में कमी का असर इस व्यवसाय पर भी पडा है. कुछ चिलित्सक अपने क्रियाकलापों से इसे कलंकित कर रहे हैं. लेकिन इनकी संख्या कम है. इस संख्या मे वृद्धि MBBS degree धारकों से नहीं है, बल्कि अल्पकालिक एवं अपर्याप्त योग्यता वाले वैसे चिकित्सकों से है जिन्हें एलोपेथिक शिक्षा का विधिवत ज्ञान नहीं है. और जो अपने मरीज़ के इलाज़ में गलत तरीको का प्रयोग करते हैं.
आज एक तरफ तो मानवता का ढोल चिकित्सक के गले से बंधकर लोग उन्हें अपमानित एवं प्रताड़ित करने से भी नहीं चुकते. वहीँ साथ साथ COPRA-consumer protection act की जंजीरों में हमें जकड दिया जाता है. इस स्थिति में हम सिसक तो सकते हैं, प्रतिवाद नहीं कर सकते हैं. यदि इस चिकत्सा विधि में विस्वास रखने एवं लाभान्वित होने का अधिकार तो मरीज़ को है तो इसके दोषों एवं इसकी सीमा रेखाओं को भी उन्हें ही समझना एवं स्वीकार करना होगा. चमत्कार अलाद्दीन का चिराग या संजीवनी बूटी जैसा इलाज़ इस पद्धति की चिकित्सा विधि में नहीं है. हम संवेदनहीन नहीं हैं,लेकिन अप्रत्याशित परिणाम, अभिभावकों की असामयिक, अनुचित एवं अपनी सुविधानुसार मांगों की पूर्ति नहीं होने पर मानवता के कटघरों में खड़ाकर जिस प्रकार हम अपमानित और पप्रताड़ित हो रहे हैं उस मानसिक वेदना एवं क्षोभ का आभास कर पाना शायद दूसरों के लिए संभव नहीं है.
चिकत्सा ऑफिस में पड़ी कोई फाइल नहीं है जिसपर दबाव डालकर कोई मनोकुल आदेश पारित कराया जा सके, यह परस्पर विश्वास एवं सहयोग से ही संभव है. आनेवाला समय एलोपेथिक चिकित्सक के लिए और जटिल हो सकता है, साथ ही मरीज़ विशेष कर गंभीर रूप से बीमार मरीजों के इलाज़ में परेशानियां आ सकती है. अगर हम आज जागरूक होकर इस व्यवसाय को बनाम करने वालों का बहिष्कार शुरू न करें एवं लोगों को इस चिकत्सा विधि की वस्तुस्थिति से अवगत न करायें.
While hypocritic oath stays the same old age,political infra structures have changed with corruption and economic restrains.A patient looks at eight stories RIMS building and fake promises given by politicians thinks everything is available there provided by govt.To his surprise,when he/she finds nothing more than APC tablets,car amnitic mixture and salycillate mixture available there,his faith in your lab coat and stethoscope goes away.Diagnosis and treatment of a disease is bilateral obligations of both pt. and doctor.Disease process does not evolve in one day,it sends warning signals much in advance.If pt.fails to ignore doctor can not do the job alone.BMI- biometric indices have to be followed strictly by both parties.Then only some thing can be achieved.Dr.Mithilesh Verma,M.D.,F.A.C.S.
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