Sunday, February 10, 2013

copra- life or poison

copra- life or poison
-BY Dr. Rohit kumaar 96 batch
published in SPRIHA 2001-02 issue

"बनवारी हो, रहरी में बोलेला सियार": गाता हुआ रामसरन तपती दोपहरी में सूरज को चुनौती देता अपने खेतों की रखवाली कर रहा था. तभी उसकी नज़र बरगद के जड़ पे बैठे जोखू पर पड़ी. जोखू सर झुकाए, बेबस लाचार ऐसा लग रहा था मनो उसे गोहत्या का पाप लग गया हो. रामसरन पुच बैठा-"का ह जोखू भाई...का हाल बा...?" जवाब में जोखू ने केवल सर उठाया. उसके अश्रुपूरित आँखों और चेहरे के काले पद गए झुर्रियों से इतना तो स्पष्ट था कि वह किसी भारी विपत्ति का शिकार हो गया है. भर्राए गले से उसने बताये की उसका बेटा जामुन के पेड़ से गिर गया है और अब तक बेहोश है. डॉक्टर इलाज़ करने से पहले CT scan कराना चाहते हैं. अब उसके पास इतने पैसे तो हैं नहीं की वह ये जांच करा पाए. सरकारी अस्पताल में तो यह जांच होता भी नहीं. राम्रासन पूछ बैठा-"लेकिंज ५ साल पाहिले जब रघुआ के बेटा बेहोश भेल रहे तब त बिन जांच के ही इलाज़ हो गेल रहे?". जोखू का जवाब था-"डॉक्टर साहब कहलन कि उनका COPRA के डर बा".
              "ई COPRA का ह भाई"
पुरे गाँव में स बात पे बहस छिड़ गयी. आखिर यह क्या चीज़ है? इससे इतने बड़े बड़े भगवान् के दुसरा रूप कहे जानेवाले डॉक्टर लोग भी डरने लगे?किसी के अनुसार यह उसका बहाना होगा, या फिर कोई जांच में मिलने वाले कमीशन की बात करता.

शहर में पढने वाले भोलू ने बताया कि उसने COBRA का नाम सुना है जिसका काटा हुआ पानी भी नहीं पी पाता  है. तो हो सकता है यह COPRA  भी उसी का कोई भाई बंधू होगा. अंत में लोगो ने निष्कर्ष निकाला- यह ऐसा कानून है की फिर डॉटर भगवान् नहीं रह जाता, उसे भी व्यापार के दायरे में दाल दिया जाता है.

जोखू के मन में अंतर्द्वंद चल रहा था. इस क़ानून से किसको लाभ है? डॉक्टर और मरीज़ दोनों परेशान हैं. अगर कानून डॉक्टर से ऊपर है तो फिर इलाज़ कचहरी में होना चाहिए? कम से कम कानून इलाज़ नहीं करता पर जांच ही फ्री में करा देता. भाई, कोबरा के काटे का इलाज़ है पर इस क़ानून का कुछ नहीं. यह तो बिना देखे ही काटता है.
जोखू देख रहा था बेहोश बेटा मरणासन्न हो रहा था, copra का विष चढ़ता जा रहा था. उसकी कोई भी सांस अंतिम हो सकती थी.

मानवता की बेड़ियों में जकड़ा सिसकता एलोपेथिक डॉक्टर समाज

मानवता की बेड़ियों में जकड़ा सिसकता एलोपेथिक डॉक्टर समाज 
-by Dr. Mrityunjay sarawagi. M.S. dept of surgery
      published in SPRIHA 1999 issue.

सफ़ेद कोट , गले में आला, इलाज़ की चुनौतियों एवं शल्य क्रिया के रोमांच से अभिभूत प्रत्येक विद्यार्थी अपने अथक परिश्रम से मेडिकल कोल्लेज में दाखिला लेता है. ५-८ वर्षों के तपस्या के बाद वह स्वतंत्र रूप से व्यवसाय से जुटता है.इस व्यवसाय के जोखिमो से और रोज़ की उतरदायित्व से उसे पता चलता है की हर वह चीज़ जो चमकती है सोना नहीं होती.

आज व्यवहार में आने वाली सभी चिकत्सा पद्धतियों में  एलोपेथिक सबसे प्रमाणिक चिकत्सा प्रणाली है.सच ये भी है की इस चिकित्सा पद्धति की अपनी परिधि , लक्ष्मण रेखाएं, एवं जटिलताएं हैं. पाश्चात्य विज्ञान पर आधारित इस चिकित्सा का प्रचलन भारतीय सामाजिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में चिकित्सक के समक्ष कई बार किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति उत्पन्न कर देता है.
निकट के समय में चिकित्सक ये अनुभव करने लगे हैं की मरीज़ के अभिभावकों की अपेक्षाएं , आक्रोश,अविश्वास एवं असंतोष की भावना बढ़ने लगी है.तो क्या चिकत्सकों के मूल्यों का ह्रास हुआ है? क्या इस स्थिति में केवल चिकित्सक उत्तरदायी हैं?यह सच है कि सामाजिक मूल्यों में कमी का असर इस व्यवसाय पर भी पडा है. कुछ चिलित्सक अपने क्रियाकलापों से इसे कलंकित कर रहे हैं. लेकिन इनकी संख्या कम है. इस संख्या मे वृद्धि MBBS degree धारकों से नहीं है, बल्कि अल्पकालिक एवं अपर्याप्त योग्यता वाले वैसे चिकित्सकों से है जिन्हें एलोपेथिक शिक्षा का विधिवत ज्ञान नहीं है. और जो अपने मरीज़ के इलाज़ में गलत तरीको का प्रयोग करते हैं.
आज एक तरफ तो मानवता का ढोल चिकित्सक के गले से बंधकर लोग उन्हें अपमानित एवं प्रताड़ित करने से भी  नहीं चुकते. वहीँ साथ साथ COPRA-consumer protection act की जंजीरों में हमें जकड दिया जाता है. इस स्थिति में हम सिसक तो सकते हैं, प्रतिवाद नहीं कर सकते हैं. यदि इस चिकत्सा विधि में विस्वास रखने एवं लाभान्वित होने का अधिकार तो मरीज़ को है तो इसके दोषों एवं इसकी सीमा रेखाओं को भी उन्हें ही समझना एवं स्वीकार करना होगा. चमत्कार अलाद्दीन का चिराग या संजीवनी बूटी जैसा इलाज़ इस पद्धति की चिकित्सा विधि में नहीं है. हम संवेदनहीन नहीं हैं,लेकिन अप्रत्याशित परिणाम, अभिभावकों की असामयिक, अनुचित एवं अपनी सुविधानुसार मांगों की पूर्ति नहीं होने पर मानवता के कटघरों में खड़ाकर जिस प्रकार हम अपमानित और पप्रताड़ित हो रहे हैं उस मानसिक वेदना एवं क्षोभ का आभास कर पाना शायद दूसरों के लिए संभव नहीं है.
चिकत्सा ऑफिस में पड़ी कोई फाइल नहीं है जिसपर दबाव डालकर कोई मनोकुल आदेश पारित कराया जा सके, यह परस्पर विश्वास एवं सहयोग से ही संभव है. आनेवाला समय एलोपेथिक चिकित्सक के लिए और जटिल हो सकता है, साथ ही मरीज़ विशेष  कर गंभीर रूप से  बीमार मरीजों के इलाज़ में परेशानियां आ सकती है. अगर हम आज जागरूक होकर इस व्यवसाय को बनाम करने वालों का बहिष्कार शुरू न करें एवं लोगों को इस चिकत्सा विधि की वस्तुस्थिति से अवगत न करायें.

Saturday, January 26, 2013

lecture theatr-a description of our classroom scene

"a descriptive study of the classroom situations at rims,ranchi by Dr. Govind madhaw and Dr. Chandan kumar yadav"

आदमियों की एक आदत होती है,जहाँ भी गए, जो भी देखा,या जो कुछ भी मिला उसमे कुछ न कुछ बुराइयां जरुर निकालेंगे अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करने के लिए. मैं भी एक इंसान ही हूँ और इसलिए ये सद्गुण मुझमे भी व्याप्त है. यूँ तो बुराई करने को हज़ारो चीज़ें है  इस जहाँ में मगर मैं उस चीज़ पे ज्यादा मेहरबान हूँ जो मुझे सब से ज्यादा अज़ीज़ है और अजीब भी.
जी हाँ, आपने बिलकुल ठीक समझा. ये है हमारा क्लासरूम. यानी lecture theatre. सही मायने में भी यह किसी ड्रामा थियेटर से कम नहीं यानी नौटंकी से भरपूर. आइये नौटंकी का पात्र परिचय सेगमेंट शुरू करें.....
1.students- future doctors, future.....
2. assets of students
3. teachers-professors.doctors
4. assets of teachers
5. attendance
6. lecture
so these were the headlines of the hour.
now in details...
1. STUDENTS-
 इस नौटंकी थियेटर में निम्नलिखित प्रकार के विद्यार्थी पाए जाते हैं...
१. जिनकी नींद हॉस्टल में पूरी नहीं हो पाती
२. इन्हें कम सुनाई देता है यानी पीछे बैठने वाले,....शायद पीछे साफ़ आवाज़ पहुँचती हो
३ . एकाध गो आगे बैठ के मुड़ी हिलाने वाले......क्लास की इज्ज़त के अंगरक्षक
४.. सज धज के क्लास में ज़रा देर से आने वाले ...सही में इन्ही के सहारे तो समय कटता है.
५..इनकी सजावट को निहारने वाले

2. ASSETS OF STUDENTS-
a. Earphone- स्टूडेंट्स की अहम् जरुरत है...बुढापे की लाठी है..नंगे का लंगोटा है..डूबता के लिए तिनके का सहारा है
 जहाँ एक तरफ टीचर्स के मधुर वचनों से बचाता है वहीँ batchmates द्वारा बनाये गए मजाको से भी अनजान रखता है, अपने antisedative action के लिए भी यह काफी मशहूर है. लेकिन इसके कई साइड इफेक्ट्स भी हैं .जैसे attendance छुट जाना या फिर किसी दुसरे के रोल नंबर पे आवाज़ दे देना इत्यादि....
b.टोपी- यह गंजो के लिए लंगोटी है , हाँ भाई वही इज्ज़त ढंकने वाली. कुछ लोग इसका प्रयोग आगे झुक कर नींद मर्लेने के लिए भी करते हैं. या फिर नज़ारे बचाकर किसी को निहारने के लिए भी ये अक्सर प्रयुक्त होता है.हाँ एक बात और, अगर सुबह देर से नींद खुली हो और बिना नहाये क्लास आना पड़े तो भी यह बहुत उपयोगी है...
c.मोबाइल फ़ोन -यह सुदर्शन चक्र है. टारगेट पे अचूक निशाना लगाता है. नर या नारी...सभी छात्रों को यौवन को सही मायने में enjoy कराने में यही एकमात्र मददगार है. रूमानियत महशुश करना हो, नए रिश्तो को पनपाना हो, sms यानि "सरल मोबाइल सन्देश " भेजना हो या टीचर्स को मिस कॉल मर कर तंग भंग करना हो....तो हर मर्ज़ की बस एक दवा है ---मोबाइल. हाँ धार्मिक विडियो देखने और दिखाने में भी यह काफी प्रशिद्ध है.
d. कलम - लेखनी ...नोट्स लिखना इसका सबसे तुच्छतम प्रयोग माना जाता है. सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग है कान खुजलाना, सामने वाले की पीठ में उकेत्तना , कार्टून बनाना ...बाकि हर कलाकार की कबिलियत पर......
e.बेंच-डेस्क - महत्वपूर्ण कार्यो  का निष्पादन इसके बिना असंभव प्रतीत होता है. सतयुग से ही इसका प्रयोग ड्रम बजाने में, कार्टून बनाने में, धार्मिक चित्रकारी में, इसके निचे छिपकर मोबाइल काल अटेंड करने में, इत्यादि अनुशंधानो में होता रहा है.

3. TEACHERS-
हमारे यहाँ यानि रिम्स में योग्य शिक्षकों की कोई कमी नहीं है. एक से बढ़कर एक विद्वान्,आचे clinicians,doctors, और अनुभवी प्रोफेसर हैं हमारे पास. कईयों के पास तो विदेशी डिग्री भी है.शायद इसलिए इनमे से कई हिंदी बोलने में अपनी डिग्री की बेईज्ज़ती समझते हैं.कुछ तो यहाँ तक कहते हैं-" u are a medico, u must try to live with english. All of u note it, when i speak then i speak, when u speak then u speak, dont speak in between between." और इसलिए वार्ड में हम मरीजों से पूछ बैठते हैं -"ऐ जी सरसती देवी, जपला से आये हैं, ok then plz let me know about severity of ur angina..." और मरीज़ बेचारे हक्का बक्का. कुछ कान्वेंट स्कूल के प्रोडक्ट्स ने एक बार हिंदी में मरीज़ से पूछताछ करने की ज़हमत उठाई. और एक महिला से पूछने लगे-"हाँ तो आपकी महामारी कैसी है?????"  अब उस ग्रामीण महिला को क्या पता की मेम साहब माहवारी को महामारी बोल रही है ..अब अपनी भाषा की अल्पज्ञता का ये नमूना......खैर...अंग्रेजी makes us feel superior then others....इसलिए तो हमलोग फाइनल मौखिक परीक्षा के पहले english spoken class join कर लेते हैं.
किसी किसी टीचर की आवाज़ इतनी अच्छी  होती है की पहले बेंच पे बैठ कर हमें अपनी कानो पर विस्वास ही नहीं होता. हो सकता है कि maaleus and incus में demand hypertrophy हो जाये.
हालाँकि हमारे प्रोफेसर डॉक्टर के पास समय का सर्वथा अभाव रहता है फिर भी वे अपना कीमती समय हमें देते हैं, वाकई ये गर्व की बात है.उनकी व्यस्तता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि क्लास के बीच में ही उन्हें कितनी ही बार फ़ोन पे बात करना पड़ता है. और उनके वार्तालाप पे हम तरह तरह के निष्कर्ष निकलते रहते हैं, जैसे-"जरुर बीबी का फोन होगा....नहीं रे कोई आइटम भी तो हो सकती है....न रे मरीज़ फंसा रहे होंगे...कम्पनी का भी तो हो सकता है...ना ना medical representative  से होटल बुक करवा रहे होंगे...."...
कुछ प्रोफेसर को तो chalk allergy होती है, कारण  हमारे श्याम पट  यानि black board का अति सुविधासंपन्न होना भी हो सकता है, या फिर हम क्षात्र  इतने कुशाग्र बुद्धि है कि शिक्षक्मुखाग्र से निकले शब्द रूपी प्रसाद को कर्ण पथ से निगलने को आतुर रहते हैं हम, और शायद इसलिए लैपटॉप के ज़माने में भी श्रुति स्मृति ज्ञान विधि को ही बेहतर समझते हैं और इसलिए उन्हें श्याम पट पर कुछ भी लिखने की जरुरत ही नहीं पड़ती.

4. ASSETS OF TEACHERS-
 तो हमारे क्लास रूपी स्टेज में शिक्षकों को अपनी कला प्रदर्शन के लिए जिस अत्यंत महत्वपूर्ण यंत्र की आवश्यकता पड़ती है वो है विद्युत् चालित प्रक्षेपक यानि "PROJECTOR". इसके भी दो प्रकार है, एक मल्टीमीडिया वाला यानि HIV- HIGHLY IMPORTED VARIETY का और दुसरा बाबा आजम के जमाने से चला आ रहा....
बीच लेक्चर में अगर बिजली रानी मायके हाली जाये तब मनो ज़िन्दगी थम जाती है. हाई-फाई डिस्कसन से हम तुरंत साधारण बातों की पढ़ाई करने लग जाते हैं, या फिर ऐसे ही गप्पे हांक कर क्लास किसी तरह ख़त्म कर दी जाती है.

5. ATTENDANE-
यह शब्द आंग्ल भाषा के शब्द ATTENTION से बना हुआ प्रतीत होता है,जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ध्यान देना. मगर हमारे यहाँ यह एक MISNOMER है. अर्थात PHYSICAL AND MENTAL PRESENCE की बजाय सिर्फ PHYSICAL PRESENCE को प्राथमिकता दी जाती है. हालाँकि आपके दोस्तों की दुआ से आप इस से भी निजात पा सकते हैं. मगर उसके लिए जिस रासायनिक अभिक्रिया की जरुरत पड़ती है उसका नाम है-  प्रॉक्सी..
PROXY- It is a type of social ativity, done in good faith to ensure the dual presence of his client in the future university exam as well as by that time outside the class.
वैसे तो ATTENDANCE को MCI ने MUST बना दिया है, क्लास आना अच्छी बात है मगर कुछ प्रश्न अभी भी उत्तर की तलाश में sms बनकर भटक रहे हैं.
१. आखिर क्यों यह बताना पड़ता है की attendance जरुरी है ?
२.क्या हर ८०% attendance वाले का एग्जाम अहह ही जाता है?
३.क्या प्रॉक्सी लगवाने वाले हमेशा फेल ही होते हैं?
४.आखिर प्रोक्सी की जरुरत ही क्यों पड़ती है?
५.जहाँ एक तरफ attendance कम होने पर , चाहे कोई भी मजबूरी हो, हमें sent-up होने से रोक दिया जाता है, वहीँ दूसरी तरफ over-attendance होने पर अगले साल उसका कोई भी बोनस या फायदा नहीं मिलता.ये तो सरासर अन्याय है..?

6. LECTURE
हमने सुन रखा था कि स्कूल में क्लास होते हैं और कॉलेज में leture. मगर आज तक हमें ये अंतर नहीं समझ में नहीं आया की class and lecture में अंतर क्या है? यहाँ भी हमें definitions रटवाए जाते हैं तोते की तरह,notes लिखवाए जाते हैं पहले क्लास के बच्चे की तरह.शिक्षक अपने अनुभव और बारीकियां profess करने की बजाय अपने स्लाइड्स की reading करना ज्यादा पसंद करते हैं. कुह लोग तो पूरी की पूरी किताब हनुमान चालीसा की तरह बिना किसी पड़ाव के धाराप्रवाह बहा कर चले जाते है...
एक टीचर को सिर्फ एक टॉपिक मिलता है पढ़ाने के लिए.वो भी सदियों से उसी को पढ़ाते आ रहे हैं. मगर ताज्जुब वे हर साल एक ही नोट्स को लिखवा भर देना अपना फ़र्ज़ समझते हैं, भले उनकी कर हर साल बदल जाए मगर हर साल उस टॉपिक पे वही चुटकुला चलता है,हर बार लड़के वही उबाओं कहानी सुनते हैं..और नोट्स भी वही...जिसे कुछ छात्राएं बड़ी म्हणत से छपने का काम करती हैं, और हम उनसे फोटो कॉपी करवा लेना अपना परम कर्तव्य समझते हैं.इन नोट्स को पढने की कोशिश सिर्फ एग्जाम के पहले की जाती है, क्यों की ऐसा अंधविश्वास है की इन्हें लिखने से एक्साम में पुरे मार्क्स मिलते हैं.
एक टीचर को सप्ताह में एक ही क्लास मिलता है, यानि एक सप्ताह में ६-७ टीचर अलग अलग टॉपिक शुरू कर देते हैं. मसलन नज़ारा ऐसा होता है कि एक तरफ हम neoplasia का  definition रट रहे होते हैं वहीँ दूसरी तरफ साथ साथ हमें melanoma surgery भी पढनी पड़ती है और अगले तरफ prostate का ट्रीटमेंट.
क्लास में कव्वाल्ली की टीम की तरह लड़के-लड़कियों के अलग अलग बैठने पे तो हर साल टीचर्स अपनी कहानिया सुनाते हैं-"हमारे समय में तो ऐसा नहीं था..बहुत फ्रैंक था हमारा बैच ...साथ सिनेमा देखने जाते थे..."

ज्यादा पोस्ट-मार्टम नहीं करना चाहिए, वरना कल को गए जब मेरा p.g. में नहीं होगा तो लोग यहि कहेंगे की "ई लड़का साल भर खली यही सब research किया है तो रिजल्ट कैसे होगा?????" इसलिए पाप ज्यादा नहीं बटोरते हुए अलविदा. कल किसी और टॉपिक का पोस्ट-मार्टम किया जायेगा......जाइए लाश का इंतज़ाम कीजिये....